उम्र
उम्र आ जाती है चुपके से दबे पांव यूं ही
आईना खूब समझता है बताता ही नहीं ।
रोज उगता है मेरे शहर में दिन का सूरज
गर्मजोशी वो पहले सी मगर लाता ही नहीं ।
मैं घिसटता हूं सुबह- शाम यूं ही सड़कों पर
एक नए कल का पैगाम पर पाता ही नहीं ।
जाने क्या बात है महसूस कुछ होता ही नहीं
मैं गिरता हूं कई बार वो उठाता ही नहीं ।
रोज़ लिखता हूं तेरा नाम मेरे नाम के साथ
चटकते रंग तेरी तस्वीर को दे पाता ही नहीं ।
एक उम्मीद जो कल तक दिल में जिंदा थी
बुझ गई आज पर कोई दर्द सताता ही नहीं ।
सरोज अंथवाल
मंदा का मन
मौन को शब्द देने की कोशिश है- मंदा का मन
Friday, 11 February 2022
Friday, 21 August 2020
सच से बेखबर
बड़ भाई को जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ
बड़ भाई
पिता के आशीर्वाद सा
सदा रहा है
बड़ भाई का स्नेह
हम सबके साथ।
व्रत-त्योहार, पूजा, शादी-ब्याह
बड़ भाई निभाता रहा है
पिता की हर जिम्मेदारी।
शगुन से भरता रहा है
हम बहनों की झोली
गौरवान्वित होता रहा है
हमारी हर उपलब्धि पर
देता रहा है आशीष हमें
सदा खुश रहने का
भाभी के साथ सबसे पहले
हम बहनों को याद कर लेता है हर खुशी में
माँ के घर के एक कोने में
बड़ भाई ने आज भी बचाकर रखा है
हम सभी भाई-बहनों का बचपन
बचपन की ढेर सारी यादें
लौट जाते हैं उन्ही दिनों में हम
जब भी इकठ्ठा होते हैं ।
भाई-भाभी के साथ
महसूस कर पाते हैं
माँ- पिता की उपस्थिति।
बरसों पुरानी एल्बम में
हीरो सा दिखता बड़ भाई
बीतते बरसों के साथ
कब पिता सा दिखने लगा
हम जान ही नहीं पाए
दोस्तों के लिए फौजी
माँ के लिए सरूप
और हम सबके लिए
बड़ भाई को देख
अक्सर लगता पिता लौट आए हैं।
डाॅ सरोज अंथवाल
बड़ भाई
पिता के आशीर्वाद सा
सदा रहा है
बड़ भाई का स्नेह
हम सबके साथ।
व्रत-त्योहार, पूजा, शादी-ब्याह
बड़ भाई निभाता रहा है
पिता की हर जिम्मेदारी।
शगुन से भरता रहा है
हम बहनों की झोली
गौरवान्वित होता रहा है
हमारी हर उपलब्धि पर
देता रहा है आशीष हमें
सदा खुश रहने का
भाभी के साथ सबसे पहले
हम बहनों को याद कर लेता है हर खुशी में
माँ के घर के एक कोने में
बड़ भाई ने आज भी बचाकर रखा है
हम सभी भाई-बहनों का बचपन
बचपन की ढेर सारी यादें
लौट जाते हैं उन्ही दिनों में हम
जब भी इकठ्ठा होते हैं ।
भाई-भाभी के साथ
महसूस कर पाते हैं
माँ- पिता की उपस्थिति।
बरसों पुरानी एल्बम में
हीरो सा दिखता बड़ भाई
बीतते बरसों के साथ
कब पिता सा दिखने लगा
हम जान ही नहीं पाए
दोस्तों के लिए फौजी
माँ के लिए सरूप
और हम सबके लिए
बड़ भाई को देख
अक्सर लगता पिता लौट आए हैं।
डाॅ सरोज अंथवाल
बड़ भाई
बड़ भाई को जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ
बड़ भाई
पिता के आशीर्वाद सा
सदा रहा है
बड़ भाई का स्नेह
हम सबके साथ।
व्रत-त्योहार, पूजा, शादी-ब्याह
बड़ भाई निभाता रहा है
पिता की हर जिम्मेदारी।
शगुन से भरता रहा है
हम बहनों की झोली
गौरवान्वित होता रहा है
हमारी हर उपलब्धि पर
देता रहा है आशीष हमें
सदा खुश रहने का
भाभी के साथ सबसे पहले
हम बहनों को याद कर लेता है हर खुशी में
माँ के घर के एक कोने में
बड़ भाई ने आज भी बचाकर रखा है
हम सभी भाई-बहनों का बचपन
बचपन की ढेर सारी यादें
लौट जाते हैं उन्ही दिनों में हम
जब भी इकठ्ठा होते हैं ।
भाई-भाभी के साथ
महसूस कर पाते हैं
माँ- पिता की उपस्थिति।
बरसों पुरानी एल्बम में
हीरो सा दिखता बड़ भाई
बीतते बरसों के साथ
कब पिता सा दिखने लगा
हम जान ही नहीं पाए
दोस्तों के लिए फौजी
माँ के लिए सरूप
और हम सबके लिए
बड़ भाई को देख
अक्सर लगता पिता लौट आए हैं।
डाॅ सरोज अंथवाल
बड़ भाई
पिता के आशीर्वाद सा
सदा रहा है
बड़ भाई का स्नेह
हम सबके साथ।
व्रत-त्योहार, पूजा, शादी-ब्याह
बड़ भाई निभाता रहा है
पिता की हर जिम्मेदारी।
शगुन से भरता रहा है
हम बहनों की झोली
गौरवान्वित होता रहा है
हमारी हर उपलब्धि पर
देता रहा है आशीष हमें
सदा खुश रहने का
भाभी के साथ सबसे पहले
हम बहनों को याद कर लेता है हर खुशी में
माँ के घर के एक कोने में
बड़ भाई ने आज भी बचाकर रखा है
हम सभी भाई-बहनों का बचपन
बचपन की ढेर सारी यादें
लौट जाते हैं उन्ही दिनों में हम
जब भी इकठ्ठा होते हैं ।
भाई-भाभी के साथ
महसूस कर पाते हैं
माँ- पिता की उपस्थिति।
बरसों पुरानी एल्बम में
हीरो सा दिखता बड़ भाई
बीतते बरसों के साथ
कब पिता सा दिखने लगा
हम जान ही नहीं पाए
दोस्तों के लिए फौजी
माँ के लिए सरूप
और हम सबके लिए
बड़ भाई को देख
अक्सर लगता पिता लौट आए हैं।
डाॅ सरोज अंथवाल
Saturday, 13 June 2020
सब कुछ वैसा ही
डॉ सरोज अंथवाल
खिड़की का दरवाजा बहुत देर से फट-फट बज रहा है । रात के दो तो
बज ही गए होंगे । आज लगता है पूरी रात ही बरसेगा। जतिन गहरी नींद में हैं, पर उसकी आंखों में दूर तक नींद नहीं है।
नींद पहले भी उसे कभी ठीक से आती ही नहीं थी। बचपन में भी रात भर न जाने क्या-क्या
सोचती रहती थी। सूरज की रोशनी में जो सपने, जो बातें उसे
नामुमकिन लगती थीं। रात होते ही जैसे वो सब अपने आप संभव सी लगने लगतीं । वो सपने
नहीं देखती थी, बस रात की वो खामोशी जैसे उसे अलग सा आत्मविश्वास
दे देती थी। जहां उसे सब कुछ संभव लगता और दिन भर स्कूल में, घर में सहमी-सहमी सी रहने वाली वो, खुली आंखों से वो
सभी शरारतें करने का भी सोचती जो उसकी सहेलियां करती थीं और वो कभी नहीं कर पाई
थी। वो सभी लकीरें खीचतीं-मिटाती जिन्हें खींचने-मिटाने के बारे में उसने कभी
सोचा भी न होता । तब उसके लिए सब संभव होता, पिता से बात
करना भी ।
उसे
याद नहीं पड़ता कभी उसने पिता से ज्यादा बात की हो । पिता के दुकान से आते तो घर
में चारों तरफ सन्नाटा पसर जाता । मां भी उन दोनों बहनों से फुसफुसा-फुसफुसा कर
ही बात करतीं। एक अजीब से डर का पहरा रहता चारों ओर । तब कहां जानती थी ये सन्नाटा
हमेशा उसके साथ रहने वाला है। कितनी अजीब बात है न, सब कहते हैं सब कुछ हमेशा एक सा नहीं रहता, लेकिन
उसके लिए तो कभी भी, कुछ भी जैसे बदला ही नहीं । बीतते दिनों
के साथ बस जैसे किरदार बदलते गए, बाकी सब कुछ जैसे वही जो
बरसों से वो जीती रही है।
शादी
के दो दिन बाद जब जतिन ने गुस्से में खाने की थाली दीवार पर दे मारी थी तो उसे
पता लग गया था उसके लिए कुछ भी बदलने वाला नहीं है। दाल-सब्जी के छींटे दीवारों
पर चारों तरफ फैल गए थे। जतिन गुस्से में बड़बड़ाते-बड़बड़ाते घर से बाहर निकल गए
थे। वो डरी नहीं थी, जानती थी उसे
क्या करना है। चुपचाप पानी और डस्टर ले वो दीवार पर लगे छींटे साफ करने लगी थी।
मां, भी तो यही करती थी, उसे याद आया। आंखें भर आईं, उस क्षण मां
बहुत याद आई। जतिन देर रात घर लौटे तो उसने उनके लिए फिर से खाने की थाली लगा दी
थी। मां भी तो यही करती थी, जब गुस्से
में थाली फैंक पिता बाहर चले जाते और देर
रात लौटते थे तो मां, पिता के लौटने के इंतजार में देर तक
बैठी रहतीं । उनके लौटने पर खाना गरम कर फिर से थाली लगातीं। निधि अक्सर कहती,
मां इतना डरने की जरूरत नहीं है क्यों लगाती हो आप फिर से थाली,
एक दिन खाना नहीं मिलेगा न, तो खुद सब पता चल
जाएगा। मां, आंखों की कोर में पानी लिए हंस देतीं, एक फीकी सी हंसी। ‘तेरे पिता बाहर का खाना नहीं खाते,
दुबारा थाली नहीं लगाउंगी तो भूखे रह जाएंगे।‘ ‘अच्छा है, भूखे रहें, इतना गुस्सा भी तो दिखाते हैं।‘
निधि की आंखों में आग होती । वो पिता से कुछ कहती तो नहीं पर उनके
पीछे या फिर उनके सामने भी निधि ही थी जो उनसे या फिर किसी से भी डरती नहीं थी। वो
निधि को देख उसी की तरह निडर और हिम्मती बनना चाहती पर सोचने से भी क्या कभी कुछ
संभव हुआ है। निधि की जुड़वां होने के बावजूद वो निधि से कितनी अलग थी।
बीतते
बरसों के साथ निधि ने दिखा दिया था कि वो उन नियमों पर चलने वाली नहीं है जो पिता
ने उसके लिए बांध कर रखे हैं । बीस बरस की होते-होते वो और विद्रोही होती गई थी
पिता हम दोनों के लिए रिश्ते ढूंढ रहे थे लेकिन निधि को ये मंजूर नहीं था । एक
दिन निधि ऐसी कॉलेज गई कि फिर लौट कर ही नहीं आई। पिता की टेबल पर रखी उसकी चिठ्ठी
से पता चला कि उसने अपनी पसंद से किसी गैर बिरादरी के लड़के से शादी कर ली है ।
उसके बाद उन्होंने कभी निधि को नहीं देखा । यूं भाग कर गैर बिरादरी में शादी कर
लेना हमारे छोटे से कस्बे के लिए बहुत बड़ी बात थी। पर पिता के डर से रिश्तेदारी
में भी किसी ने कुछ नहीं कहा। कुछ नहीं पूछा, कोई नहीं जानता था निधि कहां गई, किसी ने उसे ढूंढने
या फिर उसकी खोज-खबर लेने की कोशिश नहीं की। पिता को लिखी उसकी चिट्ठी भी न मां ने
पढ़ी थी न उसने। वो पत्र हमेशा पिता के पास ही रहा । मां, आंखों
की कोर में पानी लिए सब कुछ वैसे ही करती रहीं जैसे हमेशा किया करती थीं। ऐसे, जैसे कुछ हुआ ही न हो। मां जानती थीं अगर उनकी आंखों की कोर से पानी निकल
कर बहा, तो पिता बरदाश्त नहीं कर पाएंगे। इसीलिए वो जैसे
निधि को भूल गईं...हमेशा के लिए। जैसे कभी निधि का कोई असतित्व रहा ही न हो।
निधि
का यूं चले जाना सबको बिल्कुल शांत कर गया। सन्नाटा और गहरा हो गया था। निधि
नहीं थी फिर भी जैसे वो घर की हर चीज में थी । निधि की उपस्थिति का पहला अंदाजा
उसे तब हुआ था जब पिता ने उसे कॉलेज जाने से मना कर दिया था। परीक्षा सिर पर थी उसका
ये आखिरी साल था । मां ने समझाने की कोशिश
भी की थी पेपर देने दो लड़की का पूरा साल खराब हो जाएगा, पर पिता ने कुछ जबाब नहीं दिया था। वो
जानती थी अब वो कॉलेज कभी नहीं जा पाएगी । लेकिन वो यह नहीं जानती थी कि पिता दो
महीने में ही उसके लिए लड़का भी ढूंढ लाएंगे। जिस दिन जतिन अपने परिवार के साथ उसे
देखने आए वो जान गई थी कि महीने भर में उसका जीवन पूरी तरह से बदलने वाला है। मां
ने उसकी मर्जी पूछी थी पर उसने कभी क्या पिता की किसी बात पर प्रश्न उठाया था जो
अब उठाती । सब कुछ चुपचाप स्वीकार करना ही उसने सीखा था वही किया और बस जतिन की
पत्नी बन जतिन के घर आ गई।
उसने
लंबी सांस ली है। जतिन नींद में उसका हाथ थामे हुए हैं । वो करवट लेना चाहती है पर
हाथ खीचनें से जतिन के जाग जाने का डर है।
कितने बरस बीत गए वो याद करने की कोशिश में है कि इस तरह पहले कभी जतिन ने उसका
हाथ कब पकड़ा था । ऐसा नहीं कि जतिन में कोई बुराई थी । अच्छे खाते-पीते परिवार
के इकलौते बेटे । शायद पिता ने सब कुछ देख के ही उन्हें उसके लिए चुना था। गोद
भराई की रस्म में उसकी गोद में शगुन डालते हुए उसकी सासु मां ने कहा था 'लाखों में एक है हमारा जतिन, बस गुस्सा थोड़ा ज्यादा है, पर गुस्सा किस मर्द
मे नहीं होता।' उसने सामने खड़ी मां की ओर देखा था। मां की
आंखों में बेबसी अचानक और बढ़ गई थी। वो यूं ही शांत बैठी रही थी जैसे कुछ हुआ ही
न हो। यही तो उसे आता था और यही तो उसने मां से सीखा था- बस चुप रहना। धीरे-धीरे
समय बीतता रहा और वो भी अपनी गृहस्थी में रमती गई। जतिन का खाना, उनके कपड़े, उनका गुस्सा, बच्चों
की पढ़ाई और गृहस्थी के और सौ झंझट।
खिड़की
का दरवाजा फिर तेजी से बजा है। बाहर बिजली भी चमक रही है। उसे मां फिर याद आ गई
हैं । ऐसी ही बरसात की रात थी । बच्चों की गर्मियों की छुटि्टयों में कुछ दिनों
के लिए वो मायके आ गई थी । बच्चों को सुला ही रही थी कि मां कमरे में चली आई थीं
। इधर-उधर देखते हुए उन्होंनें एक मुड़ा-तुड़ा कागज उसकी हथेली पर रख दिया था ।
निधि की चिट्ठी थी मां के लिए, निधि
कनाडा में थी, खुश थी। वो निधि के लिखे शब्दों को सहलाती रह
गई थी लगभग तेरह बरस बाद निधि की खबर। उसकी आंखों में आंसू थे, उसने मां की ओर देखकर कुछ कहना चाहा था, पर मां ने
उसके मुंह पर हाथ रख दिया था। घर में निधि का नाम कैसे लिया जा सकता था। मां जानती
थीं इस जन्म में अब शायद निधि से कभी मुलाकात नहीं होगी पर वो खुश थीं निधि जीवित
है, कहीं उनकी निधि खुश है। उस दिन वो और मां देर रात तक
रोते रहे, वो खुशी के आंसू थे या दुख् के, शायद वो दोनों ही नहीं जानते थे। उस दिन उसने मां को बहुत टूटते हुए देखा
था। उस मुड़े-तुडे़ कागज में निधि का पता भी था, फोन नंबर भी
पर वो जानती थी मां, निधि से कभी संपर्क नहीं करेंगी । वो
जानती थी निधि हमारे लिए मर चुकी है । पर कैसे जीते जी मारा जा सकता है ऐसे किसी
को जिसे जन्म दिया हो आपने, हम कहते तो हैं पर क्या कभी
ऐसा संभव हो पाता है। जीवन के कुछ पन्नों को उठाकर कहीं अलग रख देना क्या हो
पाता है किसी से भी ? पर मां कोशिश करती रहीं और इसी कोशिश ने मां को पूरी तरह
तोड़ दिया था। पिता ने ये देखा या जाना वो नहीं जानती ।
सच है कई बार हम अपने आसपास बीतते सच से अंजान बने रहते हैं और हमें पता ही
नहीं चलता । अक्सर जब वह व्यक्ति चला जाता
है तभी हम समझ पाते हैं कि उस व्यक्ति की उपस्थिति कितनी महत्वपूर्ण थी
हमारे लिए, पर समय बीत जाने पर क्या किसी को लौटा ले आना इतना आसान होता है। वो नहीं जानती पिता
ने निधि को कभी याद किया कि नहीं, कभी उसे
लौटा ले आना चाहा या फिर कभी उसे देखने या उसकी आवाज सुनने को उनका मन हुआ कि नहीं
पर मां पर कुछ ऐसा बीतता रहा जो उन्हें अंदर ही अंदर खोखला करता रहा । पिता ने
शायद उसे देखकर अनदेखा किया और अपनी गृहस्थी के झंझटों में फंसी वो जानते हुए भी
चुपचाप बनी रही । पिता अब भी उसी तरह थे सब कुछ से बेखबर । उसे याद है बचपन में भी
कभी मां या वो दोनों बहनें बीमार हुआ करते थे तो पिता बस दवाई दिलवा दिया करते थे
। उसने कभी पिता को मां की तबीयत पूछते या फिर मां की तबीयत के लिए परेशान होते
नहीं देखा था। उनकी दिनचर्या घर और दुकान के बीच वैसे ही चलती रहती । उनके लिए
जैसे हम घर पर होते हुए भी नहीं थे। मां, पिता की हर चीज का
ध्यान रखतीं । उनकी पंसद का खाना बनातीं। व्रत, उपवास करतीं
पर उसे याद नहीं पड़ता कि कभी पिता ने मां के उन्हें खुश करने के किसी भी प्रयास
को सराहा हो या फिर उसे कभी नोट भी किया हो। उनके लिए जैसे सब कुछ ऐसा ही होता है,
ऐसा ही होना चाहिए जैसे था। पिता के गंभीर चेहरे को देख उसे कई बार
लगता क्या कभी पिता को मां से प्यार रहा भी होगा।
जब
मां पहली बार चक्कर खाकर गिरीं और उन्हें बहुत देर तक होश नहीं आया तो उसने पहली
बार पिता के चेहरे पर कुछ ऐसा देखा जिसकी उसे उम्मीद नहीं थी । पिता जैसे अचानक
सहम से गए थे । देर रात मां के कमरे के बाहर बैचेनी से घूमते पिता का यह रूप उसने
पहली बार देखा था । शायद उसकी तरह पिता को भी अहसास हो गया था की मां को अब लौटा
कर ला पाना मुमकिन नहीं होगा। हुआ भी वही चार दिन नीम बेहोशी की हालत में रहने के
बाद एक रात मां ऐसी सोईं कि सुबह उठी ही नहीं, मां ने पूरा जीवन जिस खामोशी के साथ बिताया उसी खामोशी के साथ ही मां चली
भी गईं। पिता बस बैठे रह गए थे । उसने पहली बार पिता की आंखों के कोर उसी तरह
भीगते देखे जैसे अक्सर मां के भीग जाया करते थे। चारों ओर का सन्नाटा अब और बढ़
गया था। इस दौरान वो पिता के घर ही आ गई थी शाम को जतिन भी काम के बाद वहीं आ जाया
करते थे । मां की तेहरवीं तक वो वहीं रहना चाहती थी। मां के बाद अब पिता अकेले
कैसे रह पाएंगे यह सोच कर भी वह सिहर जाती। वो जानती थी मां के रहते भी पिता अकेले
ही रह रहे थे, मां तो बस थी कहीं पार्श्व में, पिता की हर बात पर सिर झुकाकर स्वीकृति
देतीं, उनके हर नियम को सिर आंखों पर रखतीं, उनकी तरफ से पाठ रखवातीं, पूजन-उपवास करतीं, उनकी पंसद का खाना बनातीं, उनके कुरते धोतीं,
मांड से चमकातीं और सहेज कर तह बनाकर रखतीं, मां
थीं माथे पर उनके नाम की बड़ी सी लाल बिंदी लगाए, महावर लगे
पैरों में घुंघरू वाली पायल पहने एक कमरे से दूसरे कमरे को सजातीं, मां थीं तो घर था, पिता का अभिमान था। मां का होना
ही पिता को खड़ा किए हुए था ये उसने मां के जाने के बाद जाना था। मां के जाने के
ठीक नौंवे दिन बाद पिता भी नहीं रहे थे। शायद मां के बिना उन्हें जीना आता ही
नहीं था । कितनी अजीब बात है
न, जो व्यक्ति हमारे जीवन की धुरी होता है, जिसके बिना सब कुछ छूट गया सा लगता है। हम
पूरे जीवन कभी उसको यह सच्चाई नहीं बता पाते।
किसी
को इस बात पर विश्वास ही न होता था कि पिता, मां के बिना नौ दिन भी नहीं रह पाएंगे। निधि को भी नहीं । मां के जाने के
बाद उसने निधि को फोन किया था । निधि का दुख बड़ा था मां के जीवित होने के बावजूद
उसने सालों-साल मां से बात नहीं की थी। मां ने भी निधि के जाने के बाद पिता की कसम निभाते हुए कभी निधि से बात नहीं
की थी। उसे लगता था उसके चले जाने ने मां को मार डाला था। पिता की म़ृत्यु से एक
दिन पहले ही वो विदेश से घर आई थी । इतने बरसों बाद, उसी घर
जहां उसका बचपन बीता था । मां के चले जाने के बाद मां की यादों से मिलने । पिता
अपने कमरे में ही बैठे रहे थे। निधि में भी इतना साहस नहीं था कि उनके कमरे में
चली जाए। पूरी रात वो और निधि बीते दिनों को याद कर आंखे भिगोते रहे थे। सुबह जब
वो पिता की चाय का गिलास ले उनके कमरे में गई तो पिता जा चुके थे। पिता का जाना उसके लिए इतना आकस्मिक था कि उसकी आंखो से
आंसू भी नहीं निकल पाए थे । वो बस एक जगह बैठी रह गई थी ।
बाहर चिडि़यों के चहचहाने की आवाजें आने लगीं हैं । भोर हो गई है। अक्सर ऐसा
होता है अतीत के कुछ पन्ने उसे बार-बार अपनी तरफ खींचे लिए जाते हैं। वो जानती है
बार-बार अतीत को जीकर भी कई प्रश्न अनुत्त्ारित ही रह जाने वाले हैं। फिर भी
जाने क्यों कोई न कोई बात, कहीं न कहीं अतीत के किसी सिरे से जुड़ ही
जाती है और वो कभी चाहकर और कभी-कभी न चाहते हुए भी उन दिनों को जीती है।
सोचते-सोचते जाने कब उसकी आंख लग गई थी । जतिन बिस्तर पर नहीं हैं, लगता है देर हो गई है ।
सिर दर्द से फटा जा रहा है। उठने की हिम्मत नहीं है। ‘आज चाय मिलेगी की नहीं, इस घर में’ जतिन की आवाज में
वही रोज वाली तल्खी है। वो हड़बड़ाकर उठ गई है। एक नया दिन शुरू हो गया है पर
उसके लिए जैसे कुछ भी नहीं बदला है । उसके लिए तो रोज दिन ऐसे ही शुरू होता है, वो सोचती है।
Sunday, 24 May 2020
मंदा का मन
डा. सरोज अंथवाल
सुबह से मंदा का सिर फटा जा रहा है। सुबह उठते ही कपड़े धोने डाल दिए थे, अब पानी आए तभी तो धुलें। जाने कितनी देर तक नल की तरफ आस लगाए देखती रही, फिर खीझ कर उठ कर चली आई थी। अभी तो किचन में भी कितना काम पड़ा है। अजय के आफिस जाने तक तो, उसे सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिलती। किचन में परांठे सेके या फिर अजय की जुराब ढूंढ कर दे। उस पर छोटी मिनी की खुन--खुन अलग] कई बार तो ऐसा लगता है इस अफरातफरी में वो पागल ही हो जाएगी।
मिनी को सुला किचन समेट वो बिस्तर पर आकर पसर गई है । मन है कि बाम लगाकर चुपके से आंखे बंद कर ले पर अचानक गुसलखाने में पानी की टिपटिप ने उसे उठने पर मजबूर कर दिया है। ^भला ये कोई वक्त है पानी आने का, मन मसोसकर वो गुसलखाने की तरफ चल पड़ी है । कपड़ों का ढेर देख जी घबराने लगा है । कई बार सोचती है एक वाशिंग मशीन होती तो । हर बार बोनस पर वह वाशिंग मशीन खरीदने का सपना संजोती है] पर हर साल ढाक के वही तीन पात। कभी मांजी की बीमारी तो कभी ससुर जी की खांसी और कुछ नही तो रिश्तेदारी में कोई शादी-ब्याह तो निकल ही आता है और रिश्तेदारी निभाने के चक्कर में उसका सपना हर बार धरा का धरा ही रह जाता है। शादी से पहले कभी रूमाल भी धोकर नहीं देखा था। मां-बाप की इकलौती बिटिया नाजों पली थी, हाथ थे कि एकदम मलाई से कोमल और अब गृहस्थी के झंझटों में फंसकर हाथों का क्या] अपना भी ख्याल नहीं रहता।
कपड़े धोकर रेलिंग पर सूखने डालते हुए वो एक बार झिझकी है। अभी हफ्ते पहले ही तो कपड़ों से टपकते पानी के कारण जेठानी साहिबा से झगड़ा हुआ है। पर चाह कर भी छत पर जाने की हिम्मत नहीं है। पहले बाल्टी भर कपड़े लेकर ऊपर चढ़ो] उतरो और फिर कपड़े सूखने पर फिर छत पर चढ़ो। ऊपर से अगर बारिश आ जाए तो माशाअल्लाह अच्छी परेड हो जाती है और छत पर पहुंचते-पहुंचते कपड़े भी अच्छी तरह गीले हो ही जाते हैं। फिर फिलहाल नीचे कोई है भी नहीं, ‘सो रही होगी महारानी जी, उसको क्या चिंता भला बाल-बच्चे हैं नहीं] दो जनों की रसोई भी कोई रसोई होती है पलक झपकते ही निपट जाती है। बुड़बुड़ाते-बुड़बुड़ाते रेलिंग पर कपड़े फैला मंदा फिर से आकर बिस्तर पर पसर गई है। अब तो पूरे दो बजे तक सोऊंगी। सचिन के स्कूल से आने के बाद तो आराम का टाईम ही नहीं मिलता। स्कूल, बस्ता, होमवर्क और जाने क्या-क्या, फिलहाल मंदा कुछ भी याद करना नहीं चाहती । सिर फटा जा रहा है लेटने से पहले ड्रेसिंग टेबल से बाम उठा लेती तो अच्छा होता । अब तो बिस्तर से उठने का जी नहीं है। उसने आंखें बंद कर ली हैं।
नीचे से शोर की आवाज आ रही है, शायद फिर से गीले कपड़ों से टपकते पानी पर बहस छिड़ेगी। जानबूझ कर वो चुपचाप लेटी है- सिरदर्द है, कौन इन पचड़ों में पड़े। पर शोर है कि बढ़ता ही जा रहा है।
‘अरे, हद होती है, हम चुपचाप बैठे हैं तो ये सिर पर ही चढ़े आएंगे क्या' मंदा गुस्से में बिस्तर से उठकर बालकनी में आ गई है। नीचे खड़ी दीदी चीख रही है, अरे भगवान ने दो आंखे तो दी ही हैं न ऊपर कपड़े सुखाते ये भी न देखा गया कि नीचे मसाले सूख रह हैं। मंदा ने नीचे झांककर देखा सच में मसालों की एक छोटी सी थाली कपड़ों से गिरते पानी से भर गई है। मंदा को झांकते देख बड़ी दीदी का गुस्सा और भी भड़क गया है ‘पहले नहीं देखा क्या, अब ऐसे देख रही है जैसे बड़ी भोली हो-अरे कई बार कहा है कपड़े डालने से पहले ये तो सोच लिया करो कि नीचे भी लोग रहते हैं।' मंदा का गुस्सा भी भड़क उठा है-, ‘अरे जरा से मसाले गीले हो गए तो आप ऐसे चिल्ला रही हैं जैसे कोई खून कर दिया हो हमने। अब कपड़े सुखाने कहां जाएं। ऊपर कपड़े सुखाएंगे तो पानी नीचे नहीं टपकेगा क्या‘? मंदा के चीखने की आवाज से मिनी उठकर रोने लगी है। मंदा का गुस्सा और भड़क गया है। ‘ये घर अब घर नहीं रहा,दो मिनट को चैन नहीं है, न रात की नींद, न दिन का आराम,अरे लोग ये भी नहीं सोचते कि घर में छोटे बच्चे भी हैं- सही बात है बच्चों का दर्द बच्चे वाले ही जाने।‘ अपने आखिरी शब्दों को मंदा चाहकर भी रोक नहीं पाई है। नीचे बड़ी दीदी का मुंह खुला का खुला रह गया है। शायद उन्हें मंदा से इतने कड़वे शब्दों की अपेक्षा नहीं थी। उनके चेहरे पर उभरा दर्द उनकी आंखों में स्पष्ट झलक रहा है। मंदा के पास शब्द नहीं हैं । बड़ी दीदी चुपचाप अंदर चली गई हैं। मंदा ने भीतर आकर मिनी को एक करारा तमाचा रसीद कर दिया है। ‘अरे आ तो रही थी भीतर,-कान नहीं फूटे मेरे, जो चीख- रही थी। बित्ते भर की छोकरी और रोएगी तो पूरा घर सिर पर उठा लेगी।‘
मिनी मंदा के थप्पड़ से सहम गई है। मुंह मे अंगूठा डाले चुपचाप सुबकती हुई टुकर-टुकर मंदा को देख रही है। सामने घड़ी में एक बजकर पच्चीस मिनट हो गए हैं। अब क्या सोना हो पाएगा। दो बजे सचिन भी स्कूल से आ जाएगा। इतनी धूप में बस स्टाप पर सचिन को लेने जाने के ख्याल से ही मन बैठने लगा है। ये गृहस्थी भी बस- इतने सिरदर्द में भी एक मिनट को चैन नहीं है। बस स्टाप तक पहुंचते-पहुंचते दस मिनट तो लग ही जाते हैं, उस पर रास्ते भर मिनी की खुन-खुन,आईसक्रीम के ठेले के पास से तो मिनी को आगे ले जाना बड़ी मुश्किल का काम होता है। बिना आईसक्रीम लिए मैडम आगे बढ़ती ही नहीं। कहने को तो इतना बड़ा परिवार है पर एक पैसे की मदद नहीं। अरे कभी हारी-बीमारी किसी को कोई काम कहने का आसरा भी नहीं।
मिनी को गोद में उठाए, दरवाजे बंद कर मंदा सीढ़ियां उतरने लगी है। नीचे पहुंचते ही अभी-अभी हुई बहस की याद ताजा हो आई है। पानी से भरी मसालों की थाली अब भी यूं ही पड़ी है। बंद दरवाजे के भीतर से बड़ी दीदी के रोने की आवाज आ रही है। एक बार जी हुआ, भीतर जाकर बड़ी दीदी से माफी मांग ले पर अगले ही क्षण उसने सिर झटक दिया है। ‘बड़ी दीदी ने क्या कभी बड़े होने का बड़प्पन निभाया है, जो वो छोटी बनकर माफी मांगती फिरे।‘ मई की दोपहरी की धूप सीधी पड़ रही है। छाता उठा लेती तो ज्यादा अच्छा होता। लेकिन एक तरफ मिनी, फिर सचिन का बैग, वाटर बाटल और उस पर छाता, उठाया कहां जाता।
सचिन के घर पहुंचते ही फिर किचन का काम शुरू हो गया हैं पहले वो जल्दी खा लिया करती थी पर फिर दो-दो बार किचन समेटने के झंझट से बचने के लिए उसने सचिन के साथ ही लंच करना शुरू कर दिया था। मिनी और सचिन को खाना दे अपनी थाली लेकर बैठी ही थी कि फोन की घंटी खनखना उठी। अजय होंगे,उसने फोन उठा लिया है। अजय नहीं हैं, शीतल बुआ हैं । अब कम से कम आधे घंटे तो फोन पर ही बतियाती रहेंगी। मंदा को भूख भी लगी है पर क्या करे मन मारकर बुआ की बातें सुनने लगी है। वही इधर-उधर की बातें। कई बार मंदा सोचती है, पांच बच्चों को बड़ा करने के बाद भी शीतल बुआ के पासे इतनी देर तक बातें करते चले जाने की शक्ति आती कहां से है। जाने कहां-कहां की बातें निकाल लाती हैं कि समझ में ही नहीं आता किसके बारे में बात कर रही हैं। इधर-उधर से घूमकर वो फिर उसके घर के झगड़े पर आ गई हैं ‘और तेरी वो बड़ी दीदी कैसी हैं ‘ मंदा,जरा ध्यान रखा कर, आजकल अपने ही अपने दुश्मन होते हैं,तू बड़ी भोली है, कुछ जानती नहीं,ध्यान रखना कोई जादू-टोना न कर दे। बच्चों को तो उसके पास फटकने भी न देना।‘
मंदा के सिर का दर्द जोर पकड़ने लगा है । मन में अभी हुए झगड़े की याद ताजा है। शीतल बुआ की बातों में मन नहीं रम रहा है पर क्या करे ‘ ये बुआ भी ‘ ।
फोन रखकर कमरे में आ गई है, सारा कमरा चावल के दानों और भिंडी से भरा पड़ा है। मिनी ने अपनी थाली तो फैलाई ही है, उसकी थाली भी टेबल पर बिखरी पड़ी है। पानी का गिलास टेबल के नीचे लुढ़का पड़ा है। सचिन अपनी अलमारी में कुछ ढंूढने में व्यस्त है और मिनी जमीन पर चावल बिखेर उस में पानी मिलाने में बिजी है। मंदा के जी में आया कि दो झापड़ रसीद करे, पर फिर ध्यान में आ गया अभी थोड़ी देर पहले ही तो मिनी की पिटाई हुई है। अब कमरा साफ करने का काम तो बढ़ ही गया है, ऊपर से मिनी के कपड़े चेंज करने पड़ेगें सो अलग, ओ गाॅड! लगता है मैं पागल हो जाऊंगी।
चार से ऊपर का टाईम हो गया है। फिर भी जी कर रहा है कि थोड़ा लेट लिया जाए। सचिन बैट बाल लेकर बाहर चला गया है। मिनी गुड़िया में बिजी है। पंलग पर लेट मंदा ने आंखें बंद कर ली हैं । पर चाहते हुए भी सो नहीं पाई है। आज दिन की घटना के बाद से, जी जैसे कड़वा सा हो गया है। बड़ी दीदी से झगड़ा कोई नई बात तो नहीं, पर झगड़े के बाद जी ऐसा कभी नहीं हुआ। आज से पहले दीदी को इतनी कड़वी बात भी तो कभी नहीं कही। झगड़े के बाद दीदी यूं इतनी देर तक कभी रोती भी नहीं रहीं। मंदा ने इस ख्याल को छिटक, सोने की कोशिश भी की है पर नींद जैसे कहीं खो गई है। मंदा उचट कर उठ खड़ी हुई है। अजय के घर आने का टाईम होने लगा है। बाहर निकलते ही रेलिंग पर लटकते कपड़े दिख गए हैं। शायद सूख गए है। कपड़े समेटते-समेटते मंदा ने फिर नीचे झांका है। मसालों की थाली अब भी यूं ही पड़ी है । आज दीदी के कमरे से रेडियो की ऊंची आवाज भी सुनाई नहीं दे रही। ‘मुझे क्या, दीदी ने भी जरा सी बात का बवंडर बना दिया है। आप चाहे जो कुछ कहती रहें। अरे भई ! बात सुनाते हो तो बात सुनने की हिम्मत भी रखो।‘ मंदा ने भीतर आकर लाईट जला दी है। सुबह तक अपने आप ठीक हो जाएंगी, सोच मंदा किचन में जुट गई है।
अजय के घर आने के बाद तो जैसे टाईम का पता ही नहीं चलता। किचन समेटते-समेटते फिर दस बज गए। सचिन सो चुका है। अजय कोई मैगजीन हाथ में लिए बिस्तर पर अधलेटे से पड़े हैं। मिनी अंगूठा मुंह में दबाए जाने क्या सोच रही है। ‘मिनी तो हम दोनों को सुलाकर ही सोएगी‘ मंदा फिर खीज उठी है। कभी-कभी तो मिनी को सुलाते-सुलाते एक घंटे से भी ज्यादा लग जाता है। हाथ पोंछ, अजय के पास आकर बैठी है तो अजय ने मैगजीन बंद कर ली है ‘ये भईया--भाभी, कहां चले गए आज‘ अजय के प्रश्न पर मंदा चैंक उठी है ‘क्यूं घर में नहीं हैं क्या‘ ‘घर में नहीं हैं तभी तो पूछ रहा हूं। भईया ने कुछ बताया भी नहीं था।‘ मंदा निरूत्तर सी अजय का मुंह ताक रही है। अजय फिर मैगजीन में खो गए हैं। मंदा का मन भर आया है ‘जाने क्या हो गया, बड़ी दीदी का ब्लड प्रेशर तो वैसे ही बड़ा रहता है, आज फिर कहीं तबीयत न खराब हो गई हो। अब इस वक्त पूछे भी तो किससे।‘ पर अगले ही क्षण उसने इस विचार को झटक दिया है- ‘अब इतनी छोटी-छोटी बातें जी से लगाने लगे तो जी लिए फिर इस दुनिया में इतनी सी बात पर तबीयत खराब कर ली हो तो फिर खुद भुगतें।‘ अचानक कुछ याद कर मंदा झटके से उठ खड़ी हुई है। ‘क्या हुआ‘ अंधेरे मे अजय बुड़बुड़ाए हैं ‘कुछ नहीं दीदी ने बाहर मसाले सुखाए थे-सोचा अंदर रख दूं।‘ बड़ी इलायची और जीरा अच्छी तरह भीगा पड़ा हैं । हाथ से पानी निथार मंदा थाली ऊपर ले आई है। सुबह फिर नीचे धूप में रख आऊंगी। मंदा चुपचाप आकर फिर अजय की बगल में लेट गई है पर आंखों में नींद नहीं हैं आज तक ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। दिन भर की अफरा--तफरी में वो रोज इतना थक जाती है कि बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ जाती है और आज इतने प्रयासों के बावजूद भी नींद जैसे कहीं छुप गई है। सिरदर्द और बढ़ गया है । जी चाहता है उठकर थोड़ा बाम लगा ले, पर कौन उठे , कमरे में घुप्प अंधेरा है। मिनी को थपथपाते--थपथपाते मंदा सोने की कोशिश में है।
पूरी रात जैसे नींद की कोशिश में ही बीत गई। अलार्म की जरूरत ही नहीं थी। किसी तरह बिस्तर से उठकर मंदा फिर काम में लग गई है। सचिन के स्कूल की बस ठीक साढ़े सात बजे बस स्टाप पर पहुंच जाती है। सचिन का टिफिन, वाटर बाटल, उसकी तैयारी, अजय की चाय, मिनी का दूध सब कुछ रूटीन की तरह हो रहा है। बीच में तीन बार नीचे भी झांक आई है कोई चहल--पहल नहीं है। ‘इसका मतलब रात को भी घर नहीं आए।‘ अजय के आफिस जाने के बाद आज कुछ करने को मन नहीं है। मसालों की थाली अपनी चुन्नी में उड़ेल कर उसने तार से बांध दी है। खुली धूप में पानी और सूख जाएगा। शायद फिर काम आ जाए। दीदी के आने से पहले वो उन्हें फिर थाली में रख नीचे रख आएगी। भीतर आकर उसने खुन-खुन करती मिनी को गोद में उठा लिया है । सोने से पहले अक्सर मिनी चिड़चिड़ा जाती है। मंदा चुपचाप बैठे मिनी को सहला रही है। मिनी गोद में लेटे-लेटे ही सो गई है। मन आज फिर भरा-भरा सा है। जैसे जाने, कितना बोझ हो मन पर। जाने कब तक ऐसे चलेगा। मन में ऐसी उथल-पुथल पहले कभी न थी।
पूरे तीन दिन हो गए हैं। नीचे घर में अभी भी ताला पड़ा है। पहले ऐसा कभी न हुआ था। दीदी हमेशा घर पर ही रहती थीं। कहीं जाती भी तो सांझ तक लौट आती थीं। तबसे भैया भी घर नहीं आए।
दोपहर में सचिन को लेने निकली तो मसालों वाली थाली नीचे खुली धूप में रख दी। दरवाजे पर अब भी ताला पड़ा था। रात भर सो न पाने से सिर और भारी हो गया था। ‘अच्छी मुसीबत है झगड़ा ये शुरू करें और सिरदर्द मुझे होता रहे, मिनी को गोद में उठा वो धूप में निकल पड़ी है।
सचिन और मिनी को खिलाकर वो लेट गई। ऊपर चलते पंखे को देखते-देखते कई बार सोने की असफल कोशिश की पर नींद फिर गायब थी। फोन की घनघनाहट से उसकी तंद्रा टूटी पर उसने फोन नहीं उठाया। शीतल बुआ होंगी, फिर वही इधर-उधर की बातें और कानभराई उसने फिर आंखे बंद कर ली हैं। फोन थोड़ी देर बजकर फिर बंद हो गया है। रोज की बात होती तो उसे आंखे बंद करते ही नींद आ जाती। गर्मी की दुपहरी में तो वैसे भी वो सोए बिना रह नहीं पाती है। मिनी मुंह में अंगूठा लिए-लिए ही सो गई है। मंदा की आंखों में रह-रह बड़ी दीदी का चेहरा उभर आता है ‘जाने कहां चली गईं, बिना बताए कभी कहीं जाती भी न थीं। नाराजगी की बात अलग है। भैया ने भी कुछ नहीं कहा, भैया भी क्या सोचते होंगे।‘ मंदा की आंखे भर आईं हैं। बीतते वर्षों के साथ दीदी के साथ उसके संबंधों में वो माधुर्य तो नहीं रहा पर ब्याह के एकदम बाद नए घर में एक दीदी ही तो थीं जिन्हांेने उसे बिल्कुल मां की तरह अपने आंचल में समेट लिया था। सचिन की पैदाइश पर भी दीदी ने उसकी देखभाल का पूरा जिम्मा अपने हाथों में ले लिया था। मंदा को अब तक याद है सचिन के टाईम उसका जी मीठे पर कितना जाता था। दीदी पूरे टाईम हंसती रहतीं, आटे-सूजी का हलवा, बेसन के लड्डू और न जाने क्या-क्या उसे खिलातीं। वो मना करती तो दीदी उदास हो जातीं ‘मेरे कौन से खाने वाले हैं मंदा, तेरे भैया को खाने का ज्यादा शौक नहीं फिर नई-नई चीजें बनाने का शौक किसे खिला कर पूरा करूंगी और फिर वैसे भी कहते हैं जच्चा को उसके मन का मिलना चाहिए।‘ दीदी की बातों पर मंदा अक्सर हंस देती। अब तो जाने कितने वर्ष बीत गए हैं दीदी के हाथ का कुछ खाए। तेरी-मेरी के चक्कर में वो पुराने मीठे रिश्ते जाने कब इतने फीके हो गए,मंदा जान ही न पाई थी।
अजय के आफिस से आते ही मंदा का जी चाहा कि अजय को दीदी से हुए झगड़े वाली बात बता दे। पर फिर अजय का गुस्सा याद कर चुप रह गई है। मन बड़ी अजीब सी उधेड़बुन में है, क्या करे, क्या न करे। मंदा मन ही मन सोचने लगी है इतनी हंसती खिलखिलाती रहने वाली मंदा इतनी कड़वी बातें कैसे करने लगी।
शायद बाहर बारिश होने लगी है । अजय और सचिन टीवी देखने में मशगूल हैं। कढ़ाई में सब्जी हिलाते-हिलाते अचानक कुछ याद कर वो सीढ़ियों की तरफ भागने लगी है। दो दिन से मसाले बाहर धूप में रखे थे। रोज शाम को अंदर रख लिया करती थी आज भूल गई, बारिश में फिर भीग जाएंगे। अजय ने भीतर से आवाज दी है ‘इतनी तेज कहां भागी चली जा रही हो।‘ ‘मसालों की थाली बाहर रह गई।‘ वो तेजी से सीढ़ियों की तरफ चल पड़ी है। शाम के धुंधलके में तेजी से गीली सीढ़ियां उतरते अचानक साड़ी का किनारा पैर में फंस गया है और एक चीख के साथ वो सीढ़ियों पर लुढ़कती हुई गिर पड़ी है। सामने टैक्सी से दीदी और बड़े भैया उतर रहे हैं। बड़ी दीदी ने दौड़ कर लुढ़कती हुई मंदा को पकड़ लिया है । मंदा की चीख की आवाज सुन अजय बाहर निकल आए हैं। बड़े भैया और भाभी की उपस्थिति से अनभिज्ञ अजय बड़बड़ाते हुए सीढ़ियां उतर रहे हैं ‘ये मसाले की थाली न हो गई जाने क्या हो गया। गीली सीढ़ियों पर मुंह के बल गिरने की चिंता नहीं है। बस मसालों के भीगने की चिंता है।‘ मंदा की आंखों में आंसू हैं उसने सिर उठाकर बड़ी दीदी की तरफ देखा है । मंदा को सहारा दे उठाते हुए बड़ी दीदी उसे डांट रही हैं ‘मसाले तो फिर आ जाते मंदा, पर तुम्हें कुछ हो जाता तो, अचानक मंदा बड़ी दीदी के कंधे से लगकर फफक कर रो पड़ी है। ऊपर आसमान काला-नीला हो गया है। बारिश तेज हो रही है। इस सबसे अनभिज्ञ मंदा बड़ी दीदी से लिपटी रोती चली जा रही है। मसालों की थाली फिर पानी से भर गई है। मंदा को पता है, आज कई दिनों के बाद वो चैन से सो सकेगी।
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