डॉ सरोज अंथवाल
खिड़की का दरवाजा बहुत देर से फट-फट बज रहा है । रात के दो तो
बज ही गए होंगे । आज लगता है पूरी रात ही बरसेगा। जतिन गहरी नींद में हैं, पर उसकी आंखों में दूर तक नींद नहीं है।
नींद पहले भी उसे कभी ठीक से आती ही नहीं थी। बचपन में भी रात भर न जाने क्या-क्या
सोचती रहती थी। सूरज की रोशनी में जो सपने, जो बातें उसे
नामुमकिन लगती थीं। रात होते ही जैसे वो सब अपने आप संभव सी लगने लगतीं । वो सपने
नहीं देखती थी, बस रात की वो खामोशी जैसे उसे अलग सा आत्मविश्वास
दे देती थी। जहां उसे सब कुछ संभव लगता और दिन भर स्कूल में, घर में सहमी-सहमी सी रहने वाली वो, खुली आंखों से वो
सभी शरारतें करने का भी सोचती जो उसकी सहेलियां करती थीं और वो कभी नहीं कर पाई
थी। वो सभी लकीरें खीचतीं-मिटाती जिन्हें खींचने-मिटाने के बारे में उसने कभी
सोचा भी न होता । तब उसके लिए सब संभव होता, पिता से बात
करना भी ।
उसे
याद नहीं पड़ता कभी उसने पिता से ज्यादा बात की हो । पिता के दुकान से आते तो घर
में चारों तरफ सन्नाटा पसर जाता । मां भी उन दोनों बहनों से फुसफुसा-फुसफुसा कर
ही बात करतीं। एक अजीब से डर का पहरा रहता चारों ओर । तब कहां जानती थी ये सन्नाटा
हमेशा उसके साथ रहने वाला है। कितनी अजीब बात है न, सब कहते हैं सब कुछ हमेशा एक सा नहीं रहता, लेकिन
उसके लिए तो कभी भी, कुछ भी जैसे बदला ही नहीं । बीतते दिनों
के साथ बस जैसे किरदार बदलते गए, बाकी सब कुछ जैसे वही जो
बरसों से वो जीती रही है।
शादी
के दो दिन बाद जब जतिन ने गुस्से में खाने की थाली दीवार पर दे मारी थी तो उसे
पता लग गया था उसके लिए कुछ भी बदलने वाला नहीं है। दाल-सब्जी के छींटे दीवारों
पर चारों तरफ फैल गए थे। जतिन गुस्से में बड़बड़ाते-बड़बड़ाते घर से बाहर निकल गए
थे। वो डरी नहीं थी, जानती थी उसे
क्या करना है। चुपचाप पानी और डस्टर ले वो दीवार पर लगे छींटे साफ करने लगी थी।
मां, भी तो यही करती थी, उसे याद आया। आंखें भर आईं, उस क्षण मां
बहुत याद आई। जतिन देर रात घर लौटे तो उसने उनके लिए फिर से खाने की थाली लगा दी
थी। मां भी तो यही करती थी, जब गुस्से
में थाली फैंक पिता बाहर चले जाते और देर
रात लौटते थे तो मां, पिता के लौटने के इंतजार में देर तक
बैठी रहतीं । उनके लौटने पर खाना गरम कर फिर से थाली लगातीं। निधि अक्सर कहती,
मां इतना डरने की जरूरत नहीं है क्यों लगाती हो आप फिर से थाली,
एक दिन खाना नहीं मिलेगा न, तो खुद सब पता चल
जाएगा। मां, आंखों की कोर में पानी लिए हंस देतीं, एक फीकी सी हंसी। ‘तेरे पिता बाहर का खाना नहीं खाते,
दुबारा थाली नहीं लगाउंगी तो भूखे रह जाएंगे।‘ ‘अच्छा है, भूखे रहें, इतना गुस्सा भी तो दिखाते हैं।‘
निधि की आंखों में आग होती । वो पिता से कुछ कहती तो नहीं पर उनके
पीछे या फिर उनके सामने भी निधि ही थी जो उनसे या फिर किसी से भी डरती नहीं थी। वो
निधि को देख उसी की तरह निडर और हिम्मती बनना चाहती पर सोचने से भी क्या कभी कुछ
संभव हुआ है। निधि की जुड़वां होने के बावजूद वो निधि से कितनी अलग थी।
बीतते
बरसों के साथ निधि ने दिखा दिया था कि वो उन नियमों पर चलने वाली नहीं है जो पिता
ने उसके लिए बांध कर रखे हैं । बीस बरस की होते-होते वो और विद्रोही होती गई थी
पिता हम दोनों के लिए रिश्ते ढूंढ रहे थे लेकिन निधि को ये मंजूर नहीं था । एक
दिन निधि ऐसी कॉलेज गई कि फिर लौट कर ही नहीं आई। पिता की टेबल पर रखी उसकी चिठ्ठी
से पता चला कि उसने अपनी पसंद से किसी गैर बिरादरी के लड़के से शादी कर ली है ।
उसके बाद उन्होंने कभी निधि को नहीं देखा । यूं भाग कर गैर बिरादरी में शादी कर
लेना हमारे छोटे से कस्बे के लिए बहुत बड़ी बात थी। पर पिता के डर से रिश्तेदारी
में भी किसी ने कुछ नहीं कहा। कुछ नहीं पूछा, कोई नहीं जानता था निधि कहां गई, किसी ने उसे ढूंढने
या फिर उसकी खोज-खबर लेने की कोशिश नहीं की। पिता को लिखी उसकी चिट्ठी भी न मां ने
पढ़ी थी न उसने। वो पत्र हमेशा पिता के पास ही रहा । मां, आंखों
की कोर में पानी लिए सब कुछ वैसे ही करती रहीं जैसे हमेशा किया करती थीं। ऐसे, जैसे कुछ हुआ ही न हो। मां जानती थीं अगर उनकी आंखों की कोर से पानी निकल
कर बहा, तो पिता बरदाश्त नहीं कर पाएंगे। इसीलिए वो जैसे
निधि को भूल गईं...हमेशा के लिए। जैसे कभी निधि का कोई असतित्व रहा ही न हो।
निधि
का यूं चले जाना सबको बिल्कुल शांत कर गया। सन्नाटा और गहरा हो गया था। निधि
नहीं थी फिर भी जैसे वो घर की हर चीज में थी । निधि की उपस्थिति का पहला अंदाजा
उसे तब हुआ था जब पिता ने उसे कॉलेज जाने से मना कर दिया था। परीक्षा सिर पर थी उसका
ये आखिरी साल था । मां ने समझाने की कोशिश
भी की थी पेपर देने दो लड़की का पूरा साल खराब हो जाएगा, पर पिता ने कुछ जबाब नहीं दिया था। वो
जानती थी अब वो कॉलेज कभी नहीं जा पाएगी । लेकिन वो यह नहीं जानती थी कि पिता दो
महीने में ही उसके लिए लड़का भी ढूंढ लाएंगे। जिस दिन जतिन अपने परिवार के साथ उसे
देखने आए वो जान गई थी कि महीने भर में उसका जीवन पूरी तरह से बदलने वाला है। मां
ने उसकी मर्जी पूछी थी पर उसने कभी क्या पिता की किसी बात पर प्रश्न उठाया था जो
अब उठाती । सब कुछ चुपचाप स्वीकार करना ही उसने सीखा था वही किया और बस जतिन की
पत्नी बन जतिन के घर आ गई।
उसने
लंबी सांस ली है। जतिन नींद में उसका हाथ थामे हुए हैं । वो करवट लेना चाहती है पर
हाथ खीचनें से जतिन के जाग जाने का डर है।
कितने बरस बीत गए वो याद करने की कोशिश में है कि इस तरह पहले कभी जतिन ने उसका
हाथ कब पकड़ा था । ऐसा नहीं कि जतिन में कोई बुराई थी । अच्छे खाते-पीते परिवार
के इकलौते बेटे । शायद पिता ने सब कुछ देख के ही उन्हें उसके लिए चुना था। गोद
भराई की रस्म में उसकी गोद में शगुन डालते हुए उसकी सासु मां ने कहा था 'लाखों में एक है हमारा जतिन, बस गुस्सा थोड़ा ज्यादा है, पर गुस्सा किस मर्द
मे नहीं होता।' उसने सामने खड़ी मां की ओर देखा था। मां की
आंखों में बेबसी अचानक और बढ़ गई थी। वो यूं ही शांत बैठी रही थी जैसे कुछ हुआ ही
न हो। यही तो उसे आता था और यही तो उसने मां से सीखा था- बस चुप रहना। धीरे-धीरे
समय बीतता रहा और वो भी अपनी गृहस्थी में रमती गई। जतिन का खाना, उनके कपड़े, उनका गुस्सा, बच्चों
की पढ़ाई और गृहस्थी के और सौ झंझट।
खिड़की
का दरवाजा फिर तेजी से बजा है। बाहर बिजली भी चमक रही है। उसे मां फिर याद आ गई
हैं । ऐसी ही बरसात की रात थी । बच्चों की गर्मियों की छुटि्टयों में कुछ दिनों
के लिए वो मायके आ गई थी । बच्चों को सुला ही रही थी कि मां कमरे में चली आई थीं
। इधर-उधर देखते हुए उन्होंनें एक मुड़ा-तुड़ा कागज उसकी हथेली पर रख दिया था ।
निधि की चिट्ठी थी मां के लिए, निधि
कनाडा में थी, खुश थी। वो निधि के लिखे शब्दों को सहलाती रह
गई थी लगभग तेरह बरस बाद निधि की खबर। उसकी आंखों में आंसू थे, उसने मां की ओर देखकर कुछ कहना चाहा था, पर मां ने
उसके मुंह पर हाथ रख दिया था। घर में निधि का नाम कैसे लिया जा सकता था। मां जानती
थीं इस जन्म में अब शायद निधि से कभी मुलाकात नहीं होगी पर वो खुश थीं निधि जीवित
है, कहीं उनकी निधि खुश है। उस दिन वो और मां देर रात तक
रोते रहे, वो खुशी के आंसू थे या दुख् के, शायद वो दोनों ही नहीं जानते थे। उस दिन उसने मां को बहुत टूटते हुए देखा
था। उस मुड़े-तुडे़ कागज में निधि का पता भी था, फोन नंबर भी
पर वो जानती थी मां, निधि से कभी संपर्क नहीं करेंगी । वो
जानती थी निधि हमारे लिए मर चुकी है । पर कैसे जीते जी मारा जा सकता है ऐसे किसी
को जिसे जन्म दिया हो आपने, हम कहते तो हैं पर क्या कभी
ऐसा संभव हो पाता है। जीवन के कुछ पन्नों को उठाकर कहीं अलग रख देना क्या हो
पाता है किसी से भी ? पर मां कोशिश करती रहीं और इसी कोशिश ने मां को पूरी तरह
तोड़ दिया था। पिता ने ये देखा या जाना वो नहीं जानती ।
सच है कई बार हम अपने आसपास बीतते सच से अंजान बने रहते हैं और हमें पता ही
नहीं चलता । अक्सर जब वह व्यक्ति चला जाता
है तभी हम समझ पाते हैं कि उस व्यक्ति की उपस्थिति कितनी महत्वपूर्ण थी
हमारे लिए, पर समय बीत जाने पर क्या किसी को लौटा ले आना इतना आसान होता है। वो नहीं जानती पिता
ने निधि को कभी याद किया कि नहीं, कभी उसे
लौटा ले आना चाहा या फिर कभी उसे देखने या उसकी आवाज सुनने को उनका मन हुआ कि नहीं
पर मां पर कुछ ऐसा बीतता रहा जो उन्हें अंदर ही अंदर खोखला करता रहा । पिता ने
शायद उसे देखकर अनदेखा किया और अपनी गृहस्थी के झंझटों में फंसी वो जानते हुए भी
चुपचाप बनी रही । पिता अब भी उसी तरह थे सब कुछ से बेखबर । उसे याद है बचपन में भी
कभी मां या वो दोनों बहनें बीमार हुआ करते थे तो पिता बस दवाई दिलवा दिया करते थे
। उसने कभी पिता को मां की तबीयत पूछते या फिर मां की तबीयत के लिए परेशान होते
नहीं देखा था। उनकी दिनचर्या घर और दुकान के बीच वैसे ही चलती रहती । उनके लिए
जैसे हम घर पर होते हुए भी नहीं थे। मां, पिता की हर चीज का
ध्यान रखतीं । उनकी पंसद का खाना बनातीं। व्रत, उपवास करतीं
पर उसे याद नहीं पड़ता कि कभी पिता ने मां के उन्हें खुश करने के किसी भी प्रयास
को सराहा हो या फिर उसे कभी नोट भी किया हो। उनके लिए जैसे सब कुछ ऐसा ही होता है,
ऐसा ही होना चाहिए जैसे था। पिता के गंभीर चेहरे को देख उसे कई बार
लगता क्या कभी पिता को मां से प्यार रहा भी होगा।
जब
मां पहली बार चक्कर खाकर गिरीं और उन्हें बहुत देर तक होश नहीं आया तो उसने पहली
बार पिता के चेहरे पर कुछ ऐसा देखा जिसकी उसे उम्मीद नहीं थी । पिता जैसे अचानक
सहम से गए थे । देर रात मां के कमरे के बाहर बैचेनी से घूमते पिता का यह रूप उसने
पहली बार देखा था । शायद उसकी तरह पिता को भी अहसास हो गया था की मां को अब लौटा
कर ला पाना मुमकिन नहीं होगा। हुआ भी वही चार दिन नीम बेहोशी की हालत में रहने के
बाद एक रात मां ऐसी सोईं कि सुबह उठी ही नहीं, मां ने पूरा जीवन जिस खामोशी के साथ बिताया उसी खामोशी के साथ ही मां चली
भी गईं। पिता बस बैठे रह गए थे । उसने पहली बार पिता की आंखों के कोर उसी तरह
भीगते देखे जैसे अक्सर मां के भीग जाया करते थे। चारों ओर का सन्नाटा अब और बढ़
गया था। इस दौरान वो पिता के घर ही आ गई थी शाम को जतिन भी काम के बाद वहीं आ जाया
करते थे । मां की तेहरवीं तक वो वहीं रहना चाहती थी। मां के बाद अब पिता अकेले
कैसे रह पाएंगे यह सोच कर भी वह सिहर जाती। वो जानती थी मां के रहते भी पिता अकेले
ही रह रहे थे, मां तो बस थी कहीं पार्श्व में, पिता की हर बात पर सिर झुकाकर स्वीकृति
देतीं, उनके हर नियम को सिर आंखों पर रखतीं, उनकी तरफ से पाठ रखवातीं, पूजन-उपवास करतीं, उनकी पंसद का खाना बनातीं, उनके कुरते धोतीं,
मांड से चमकातीं और सहेज कर तह बनाकर रखतीं, मां
थीं माथे पर उनके नाम की बड़ी सी लाल बिंदी लगाए, महावर लगे
पैरों में घुंघरू वाली पायल पहने एक कमरे से दूसरे कमरे को सजातीं, मां थीं तो घर था, पिता का अभिमान था। मां का होना
ही पिता को खड़ा किए हुए था ये उसने मां के जाने के बाद जाना था। मां के जाने के
ठीक नौंवे दिन बाद पिता भी नहीं रहे थे। शायद मां के बिना उन्हें जीना आता ही
नहीं था । कितनी अजीब बात है
न, जो व्यक्ति हमारे जीवन की धुरी होता है, जिसके बिना सब कुछ छूट गया सा लगता है। हम
पूरे जीवन कभी उसको यह सच्चाई नहीं बता पाते।
किसी
को इस बात पर विश्वास ही न होता था कि पिता, मां के बिना नौ दिन भी नहीं रह पाएंगे। निधि को भी नहीं । मां के जाने के
बाद उसने निधि को फोन किया था । निधि का दुख बड़ा था मां के जीवित होने के बावजूद
उसने सालों-साल मां से बात नहीं की थी। मां ने भी निधि के जाने के बाद पिता की कसम निभाते हुए कभी निधि से बात नहीं
की थी। उसे लगता था उसके चले जाने ने मां को मार डाला था। पिता की म़ृत्यु से एक
दिन पहले ही वो विदेश से घर आई थी । इतने बरसों बाद, उसी घर
जहां उसका बचपन बीता था । मां के चले जाने के बाद मां की यादों से मिलने । पिता
अपने कमरे में ही बैठे रहे थे। निधि में भी इतना साहस नहीं था कि उनके कमरे में
चली जाए। पूरी रात वो और निधि बीते दिनों को याद कर आंखे भिगोते रहे थे। सुबह जब
वो पिता की चाय का गिलास ले उनके कमरे में गई तो पिता जा चुके थे। पिता का जाना उसके लिए इतना आकस्मिक था कि उसकी आंखो से
आंसू भी नहीं निकल पाए थे । वो बस एक जगह बैठी रह गई थी ।
बाहर चिडि़यों के चहचहाने की आवाजें आने लगीं हैं । भोर हो गई है। अक्सर ऐसा
होता है अतीत के कुछ पन्ने उसे बार-बार अपनी तरफ खींचे लिए जाते हैं। वो जानती है
बार-बार अतीत को जीकर भी कई प्रश्न अनुत्त्ारित ही रह जाने वाले हैं। फिर भी
जाने क्यों कोई न कोई बात, कहीं न कहीं अतीत के किसी सिरे से जुड़ ही
जाती है और वो कभी चाहकर और कभी-कभी न चाहते हुए भी उन दिनों को जीती है।
सोचते-सोचते जाने कब उसकी आंख लग गई थी । जतिन बिस्तर पर नहीं हैं, लगता है देर हो गई है ।
सिर दर्द से फटा जा रहा है। उठने की हिम्मत नहीं है। ‘आज चाय मिलेगी की नहीं, इस घर में’ जतिन की आवाज में
वही रोज वाली तल्खी है। वो हड़बड़ाकर उठ गई है। एक नया दिन शुरू हो गया है पर
उसके लिए जैसे कुछ भी नहीं बदला है । उसके लिए तो रोज दिन ऐसे ही शुरू होता है, वो सोचती है।