उम्र
उम्र आ जाती है चुपके से दबे पांव यूं ही
आईना खूब समझता है बताता ही नहीं ।
रोज उगता है मेरे शहर में दिन का सूरज
गर्मजोशी वो पहले सी मगर लाता ही नहीं ।
मैं घिसटता हूं सुबह- शाम यूं ही सड़कों पर
एक नए कल का पैगाम पर पाता ही नहीं ।
जाने क्या बात है महसूस कुछ होता ही नहीं
मैं गिरता हूं कई बार वो उठाता ही नहीं ।
रोज़ लिखता हूं तेरा नाम मेरे नाम के साथ
चटकते रंग तेरी तस्वीर को दे पाता ही नहीं ।
एक उम्मीद जो कल तक दिल में जिंदा थी
बुझ गई आज पर कोई दर्द सताता ही नहीं ।
सरोज अंथवाल