Thursday, 14 May 2020

नदी

काली छिटपुटी शाम में
अक्सर जब हताशा
जीतने लगती है मुझे हराकर
जाने कहाँ से आकर
एक नदी
बहने लगती है
मेरे भीतर अनवरत
पूरे वेग से।
जिलाती है मुझे
मेरे भीतर
मुँह उठाते
पाषाण की कठोरता को
छीलती रहती है
धीरे-धीरे।
जी निर्मल हो जाता है
बिल्कुल ठंडा।
नदी सहलाती है
धीरे-धीरे मेरे मन को
और जाने कहाँ से
हार का सुख
जीने लगती हूं मैं।
देह पूरी हो जाती है
परिवर्तित
नदी में
और कंकड़-पत्थर से भरे रास्तों को
सींचने की जिजीविषा
अदम्य हो जाती है
और अचानक हो जाता है मन
फिर से हरा-भरा।

डाॅ सरोज अंथवाल
(माँ के हिस्से का युद्ध)

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