निकला नहीं सूरज
चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है
भयावह सा।
अंधेरे में ही
चलते हैं हम
दबे पांव चुपके-चुपके
जैसे सेंध लगा रहे हों
अपने ही घरों में।
स्याही पुते चेहरों पर
बस बत्तीसियां ही दिखती हैं
और अंदाजा लगा लेते हैं हम
शायद हंस रहा है
सामने वाला ।
पेड़-पौधे उगते तो हैं
पर सूरज की किरणों के बिना
अंकुरित नहीं हो पाता शायद
कोई पौधा
बस यूं ही खा लेते हैं हम
बसियाते पौधों की
बसियाती उपज।
याद बहुत आता है सूरज
पर मिलता नहीं कहीं ढूंढे भी
कहते हैं
यहीं कहीं
धरती के बीहड़ों में खो गया है।
फिर भी
आदमी को आशा है
एक दिन
सूरज
चुपके से
किसी नन्ही हथेली में अंच जाएगा और कहीं किसी मासूम किलकारी में
दमक कर
फिर चमकने लगेगा
आकाश में
हमेशा के लिए।
डॉ सरोज अंथवाल
(माँ के हिस्से का युद्ध)
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